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रेलवे के स्थापना दिवस पर विशेष : ‘’देश में सभी के लिए स्वच्छ और सम्मानजनक यात्रा’’ का सपना साकार हो ‘’

सितम्बर, 1917 को लिखे गए एक ऐतिहासिक पत्र में महात्मा गांधी ने भारतीय रेलों में तीसरे दर्जे की यात्रा के दौरान किए गए अनुभवों को साझा किया. द लीडर समाचार पत्र के संपादक को लिखा गया यह पत्र सिर्फ़ एक यात्रा-वृत्तांत नहीं, बल्कि ब्रिटिश-भारत के रेलवे तंत्र में व्याप्त अव्यवस्था, अस्वच्छता और अमानवीय स्थितियों का सजीव चित्रण है.विशेष बात है कि यह एक सामान्य व्यक्ति के रेल यात्रा अनुभवों से बिलकुल भी अलग नहीं है .

दक्षिण अफ्रीका से लंबे प्रवास के बाद भारत लौटे गांधीजी ने जानबूझकर तीसरे दर्जे की यात्रा को चुना ताकि वे आम जनता की वास्तविक स्थितियों का अनुभव कर सकें. इन दो वर्षों दौरान उन्होंने लाहौर से लेकर त्रिचनापल्ली और कराची से कलकत्ता तक की यात्रा की . वे यात्रा की तकलीफ़ों से इतने व्यथित हुए कि उन्होंने मीडिया समूह से रेलवे में व्याप्त अव्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ धर्म युद्ध का आह्वान तक कर डाला था .

भीड़, गंदगी और अमानवीय हालात

एक यात्रा के दौरान गांधीजी ने बंबई से मद्रास तक का टिकट लिया. डिब्बे में केवल बैठने की व्यवस्था थी और उसमें भी 22 यात्रियों की क्षमता वाली बोगी में 35 यात्री ठूंसे गए थे. कुछ यात्रियों को ज़मीन पर गंदगी में लेटना पड़ा, तो कुछ को खड़े-खड़े ही रात बितानी पड़ी. डिब्बों की सफाई कभी नहीं होती थी और शौचालय गंदगी से भरे रहते थे जिनमें पानी भी उपलब्ध नहीं होता था.

वीरेंद्र कुमार पालीवाल सेवानिवृत्त स्टेशन प्रबंधक हैं.  बैतूल

आज दिनांक 16 अप्रैल को भारतीय रेल का स्थापना दिवस है. भारत में 16 अप्रैल 1853 को पहली ट्रेन मुंबई से वाड़ी बंदर के बीच चली थी. गांधीजी का यह पत्र सुधार की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था. लगभग 110 वर्ष बाद भी रेलवे में स्वच्छता और व्यवस्था की चुनौतियाँ बनी हुई हैं. यह पत्र हमें प्रेरित करता है कि रेल प्रशासन और नागरिक मिलकर गांधीजी के सपने. ‘’सभी के लिए स्वच्छ और सम्मानजनक यात्रा’’ को साकार करें.

खानपान और अस्वच्छता की भयावह स्थिति

पूरी यात्रा के दौरान डिब्बे की सफाई नहीं हुई. फर्श पर गंदगी की मोटी परत जमी थी. शौचालय में पानी नहीं था और वह अत्यंत गंदा था. चाय में गंदी चीनी और संदिग्ध गुणवत्ता वाला दूध मिला हुआ था. स्टेशनों पर मुसाफिरखाने बेहद गंदे थे, जहाँ यात्रियों को गंदे फर्श पर बैठकर भोजन करना पड़ता था. गांधीजी ने बताया कि यात्रियों को जो चाय या दूध जैसा पेय दिया गया, वह मैला और गंदे पानी जैसा था. भोजन गंदे हाथों से परोसा जाता था और मापने के लिए जिन तराजुओं का इस्तेमाल होता था, वे भी अस्वच्छ थीं. अनाधिकृत वेंडर सामग्री बेच रहे थे .खाद्य सामग्री पर भिनभिनाती मक्खियाँ उसे प्रदूषित कर रही थीं.

अधिकारियों की अनदेखी और भ्रष्टाचार.

गांधीजी ने यह भी उजागर किया कि किस प्रकार रेलवे कर्मचारी रिश्वत लेकर टिकट और सीटें दिलाते थे. गांधीजी ने देखा कि यात्रियों को टिकट और सीट पाने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है. एक पंजाबी यात्री ने बताया कि उसे टिकट के लिए 5 रुपये रिश्वत देनी पड़ी . यात्रियों को शारीरिक और मानसिक यातना के बीच सफर करना पड़ता था, फिर भी वे चुप रहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि यही उनकी नियति है.

*वर्गीय भेदभाव की मार्मिक अभिव्यक्ति *

गांधीजी ने प्रथम और तीसरे दर्जे की सुविधाओं में भारी अंतर की ओर ध्यान दिलाया. मद्रास मेल में प्रथम दर्जे का किराया तीसरे दर्जे से पाँच गुना अधिक था, लेकिन तीसरे दर्जे के यात्रियों को उसका दसवाँ हिस्सा भी सुविधाएँ नहीं मिलती थीं. उन्होंने कहा, “तीसरे दर्जे के यात्री भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के हकदार हैं.”

एक राष्ट्रीय समस्या

गांधीजी ने बताया कि यह एक जगह की घटना नहीं, बल्कि पूरे देश में व्याप्त समस्या है. रायचुर, धोंड, सोनपुर, चक्रधरपुर, पुरूलिया और आसनसल जैसे जंक्शन स्टेशनों की स्थिति भी ऐसी ही भयावह है. उन्होंने चेतावनी दी कि यह अस्वच्छता भारत में प्लेग जैसी महामारियों का कारण बन रही है.

सुधारों की आवश्यकता

अपने पत्र के अंत में गांधीजी ने जोर देकर कहा, ” विश्व युद्ध के बहाने इस विशाल समस्या को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. विश्व युद्ध गंदगी और भीड़भाड़ को सही ठहराने का आधार नहीं बन सकता.

गांधीजी ने इस पत्र के अंत में सुझाव दिया कि भारत के उच्चाधिकारी वायसराय, सेना प्रमुख, महाराजगण और अन्य प्रभावशाली लोग – बिना किसी पूर्व सूचना के कभी-कभी तीसरे दर्जे में यात्रा करें. तभी वे जनता की वास्तविक पीड़ा को समझ सकेंगे और व्यवस्था में आवश्यक सुधार कर सकेंगे.

गांधीजी का यह पत्र केवल एक आलोचना नहीं था, बल्कि यह सुधार की दिशा में एक गंभीर पहल थी. उन्होंने कहा कि तीसरे दर्जे के यात्री भी अपने किराए के बदले में बुनियादी सुविधाओं के अधिकारी हैं. उनके लिए स्वच्छता, सम्मान और सुविधा की व्यवस्था होना सिर्फ़ न्याय नहीं, बल्कि एक नैतिक आवश्यकता है.

अब हम यात्रियों को विचार करना चाहिए ओर रेल प्रशासन की भी नैतिक ज़िम्मेदारी है कि रेलवे में वर्तमान व्यवस्थाओं का गांधीजी के यात्रा अनुभवों के साथ आकलन करें और निष्पक्ष रूप से निष्कर्ष निकालें कि गांधी जी के इस पत्र के लगभग 110 बाद भी क्या कुछ अव्यवस्थाएँ सुरसा के समान मुँह फैलाकर अब भी यथावत मौजूद हैं !!!!!!!!!

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