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एनपीएस का काला सच: बीजेपी लाई, कांग्रेस ने कानून बनाया, एआईआरएफ के अध्यक्ष बने ट्रस्टी

एनपीएस का काला सच: बीजेपी लाई, कांग्रेस ने कानून बनाया, एआईआरएफ के अध्यक्ष बने ट्रस्टी

नई दिल्ली. नई पेंशन योजना को भले राहुल गांधी व प्रियंका गांधी इसे रद्द करने को अपने घोषणापत्र में शामिल करने की बात करें, लेकिन हकीकत यही है की इस योजना को कानूनी जामा कांग्रेस ने ही पहनाया था. बीजेपी भले 2004 में इस योजना को लाई हो, लेकिन मनमोहन सरकार ने अपने अंतिम दिनों में इसे कानून बना दिया. वहीं रेलवे के सबसे बड़े कर्मचारी संगठन एआईआरएफ के अध्यक्ष ने इसका ट्रस्टी बनकर साबित कर दिया था की एनपीएस लाने में इसकी भी भागीदारी थी.

गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव आते ही कांग्रेस की उत्तर प्रदेश की सचिव प्रियंका गांधी ने उनसे मिलने गए कई कर्मचारी संगठनों को यह आश्वासन दिया कि एनपीएस रद्द करने के लिए वह इस मुद्दे को कांग्रेस के घोषणापत्र में शामिल करेंगे. सबसे बड़ी बात यह है कि नई पेंशन योजना भले 2004 में भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेई सरकार लाई हो लेकिन वह इसे कानून बनाने से पहले ही विदा हो गई. इसके बाद लगातार 10 वर्ष तक केंद्र में कांग्रेसी सरकार रही, वह भी उन के सहारे (वामपंथी दलों के)जो अपने आप को मजदूरों का मसीहा कहते नहीं थकते हैं, तब यह सरकार एनपीएस पर कोई भी कार्रवाई करने या इसमें रद्दो बदल करने में बुरी तरह से असफल रही. ऐसे में भले प्रियंका गांधी दावा करें कि कांग्रेस की सरकार आते ही वह एनपीएस को रद्द कर देगी, इसमें कोई सच्चाई नजर नहीं आती है. एनपीएस को लेकर चुनावी वर्ष में कई कर्मचारी संगठनों ने भले अपनी ताकत का एहसास कराने की कोशिश की, लेकिन कोई भी संगठन इतनी शक्ति नहीं दिखा पाया कि इससे मोदी सरकार पर किसी प्रकार का दबाब पड़े.

दरअसल एनपीएस को लेकर कर्मचारी संगठनों में आंदोलन करने को लेकर किसी भी प्रकार का कोई सामंजस्य नहीं है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि रेलवे के सबसे बड़े संगठन एआईआरएफ के तत्कालीन अध्यक्ष, जब स्वयं एनपीएस के बोर्ड के ट्रस्टी रहे हो, ऐसे में यदि यह यूनियन इसे रद्द कराने का ड्रामा करे तो इसे कर्मचारियों का सहयोग मिलना नामुमकिन था, और असल में यह हुआ भी.एनपीएस को लेकर नई दिल्ली में किया गया इसका आंदोलन बुरी तरह से असफल रहा था. इसके बाद एनपीएस को लेकर अटेवा का प्रदर्शन भी उल्लेखनीय नहीं रहा. दरअसल इससे जुड़े नेता उनके आगे पीछे घूमते रहे, जिन्होंने एनपीएस को लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. ऐसे में आंदोलन कर्मचारियों को ना होकर निजी स्वार्थ और अपने राजनीतिक हित साधने तक सीमित रहा.इससे जुड़े नेता उत्तर प्रदेश में नई पेंशन को लेकर कोई भी बड़ा आंदोलन करने में जब असफल रहे तब उन्होंने सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग कर इस आंदोलन को नई दिल्ली में शिफ्ट कर दिया. लेकिन उनकी नियत भी एनपीएस को रदद् करने के बजाय अपने आप को बड़ा नेता सिद्ध करने तक सीमित रही.

रेलवे के सबसे बड़े संगठन एआईआरएफ के तत्कालीन अध्यक्ष, जब स्वयं एनपीएस के बोर्ड के ट्रस्टी रहे हो, ऐसे में यदि यह यूनियन इसे रद्द कराने का ड्रामा करे तो इसे कर्मचारियों का सहयोग मिलना नामुमकिन था और असल में यह हुआ भी.एनपीएस को लेकर नई दिल्ली में किया गया इसका आंदोलन बुरी तरह से असफल रहा था.

सोशल मीडिया में भरपूर अफवाह फैलाई गई की सरकार ने अटेवा के नेताओं को कर्मचारियों की भीड़ देखकर एनपीएस रद्द करने को लेकर वार्ता करने के लिए बुलाया है लेकिन असलियत यह थी कि सरकार ने साफ कर दिया था कि एनपीएस को रद्द करना नामुमकिन है. ऐसे में अटेवा से जुड़े लोगों ने जल्द ही अपने बोरिया बिस्तर दिल्ली से बांध लिए. जहां तक एनपीएस की बात है तो इसे लागू कराने में बीजेपी कांग्रेस और कर्मचारी संगठन, तीनों ही एक साथ थे.अब जबकि नए कर्मचारियों की बाढ़ आ गई और उन्हें लगने लगा कि एनपीएस को लेकर इनमें भारी आक्रोश है तब यह लोग कर्मचारियों का साथ होने का ड्रामा करने लगे.

2004 में जब यह लाई गई तब उस वक्त एआईआएफ के तत्कालीन अध्यक्ष स्वयं ट्रस्टी बन गए.उस वक़्त कर्मचारियो के भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचा गया. अब इसके नेता एनपीएस को रद्द कराने के लिए आए दिन पोस्टर बाजी और गेट मीटिंग का ड्रामा करते घूम रहे हैं. इतना तय था की यदि 2004 में यह संगठन अपनी में अढ़ जाता तो किसी की हिम्मत नहीं थी की कम से कम रेलवे में यह योजना लागू कर पाता. लेकिन उस वक्त से लेकर 2014 तक यह संगठन सरकार कि हां में हां मिलाता रहा.सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब 2013 में इसे कानूनी जामा पहनाया जा रहा था, तब भी यह संगठन हो या अन्य संगठन या अटेवा के लोग हों किसी ने भी आंदोलन नहीं किया.

चुनावी वर्ष में सोशल मीडिया के जरिए अब कर्मचारियों को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है. जो सरकार 10 सालों में एनपीएस के बारे में बात भी ना करें वह सत्ता में आते ही से रद्द करें ऐसा संभव नहीं है. क्योंकि कांग्रेस की करनी ही अब कर्मचारियों को भोगनी पड़ेगी.एनपीएस अब कानून बन चुका है और जब तक संसद में दो तिहाई बहुमत से इसे खारिज नहीं किया जाए तब तक यह रद्द नहीं होगा. ऐसे में पिछले लोकसभा में 40 सीटें लाने वाली कांग्रेस किसी भी हालत में संसद में इतना बहुमत हासिल नहीं कर सकती है. दरअसल चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस या वर्तमान के मजदूर संगठन, सभी ने मिलकर कर्मचारियों को हकीकत बताने के बजाय गुमराह ही किया है. एनपीएस के लिए सभी दोषी हैं.

source : railwarta

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