समाज संस्कृति

सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्व ही नहीं आर्थिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है “बोम्मला कोलुवू”

  • देश की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को बचाने और संरक्षित करने में जुटी है युवा पीढ़ी
  • हिन्दू पर्व धार्मिक के साथ वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी होते हैं महत्वपूर्ण 

RAIPUR. हिन्दू पर्व धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होने के साथ ही वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी. दक्षिण भारत की दशहरा नवरात्र में नौ दिनों तक चलने वाली “बोम्मलाकोलुवु” (DOLL FESTIVAL). बोम्मला का अर्थ होता है खिलौने और कोलुवु का अर्थ होता है सभा या इकट्ठा या एकत्रित होना. मतलब #खिलौनों_की_सभा (#Court_of_Toys). है ना इंट्रेस्टिंग?

दक्षिण भारत में दशहरा नवरात्र में नौ दिनों तक चलने वाली “बोम्मला कोलुवु” (#DOLL_FESTIVAL) का काफी महत्व है. इसका सांस्कृतिक एवं पारंपरिक महत्व तो है ही. सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह उत्सव काफी महत्वपूर्ण है. जैसे की नाम से ही हम समझ सकते हैं कि इस उत्सव का सारा दारोमदार खिलौनों पर टिका होता है. आम तौर पर खिलौने स्थानीय ग्रामीण कारीगरों द्वारा मिट्टी और लकड़ी की सामग्रियों से बनाए जाते हैं और फिर चटख चमकीले रंग से रंगे और सजाए जाते हैं, जिससे बेजान मिट्टी और लकड़ियांँ मानो जीवंत हो उठते हैं.

श्रद्धा भाव के साथ सृजन का समावेश

साधारणतया यह खिलौने एक कहानी या दृश्य बयान करते हैं. इसके लिए इन्हें विषम/विजोडी संख्या (३,५,७,९,११) में स्तरों या चरणों (steps) में व्यवस्थित किया जाता है. सीढ़ियों की संख्या आपके पास कितने खिलौने है इसके हिसाब से तय किया जाता है. यह सचमुच अपने आप में एक कला और चुनौती भी है कि मूर्तियों और गुड़ियों को चरणबद्ध तरीकों से क्षैतिज सरणियों में कैसे सुन्दर ढंग से व्यवस्थित किया जाए. ऊपर से नीचे तक एक पदानुक्रम में देवी देवता, ऋषि मुनि, मनुष्य गण, पशु पक्षी, गाँव खेत खलिहान, पेड़ पौधे,फिर रास्ते, नदियांँ श्रेणीबद्ध तरीके से रखें जाते हैं.

इसमें शिव पार्वती, राधा कृष्ण, दशावतार, अष्टलक्ष्मी और अनेकों हिन्दू देवी देवताओं के बारे में ही नहीं बल्कि ‘बोम्माला कोलुवु’ में विषयगत रूप से विवाह, गांव की झोंपड़ी, सार्वजनिक सभाएं एवं विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों को भी दर्शाया जाता है. ये खिलौने आस पास के गांवों की दैनिक दिनचर्या को पूरी तरह दर्शाते थे, जिनमें प्रमुख, देवी देवताओं की मूर्तियां, लट्टू, रसोईघर का सेट जिसमें खाना पकाने के बर्तन, कलछी, नकली कोयले का चूल्हा, चक्की, लकड़ी की तोप, बैलगाड़ी, टॉय ट्रेन यहां तक कि एक कुआं भी, शामिल होते थे. हल्दी कुमकुम, सुपारी तथा अन्य सुगंधित द्रव्य रखने के लिए लकड़ी से बनी कटोरियांँ इत्यादि.

सांस्कृतिक धरोहर की झलक

इसके अलावा बोम्मला कोलुवु को और अधिक भव्य बनाने के लिए छोटे छोटे पार्क, बीच, चिड़ियाघर सोसायटी का माॅडल तथा अन्य कई प्रकार के सामाजिक और धार्मिक संस्थान जैसे हाॅस्पिटल, पुलिस स्टेशन, पोस्ट ऑफिस आदि को भी सीढ़ियों के बगल में सजाया जाता है. फिर रंग बिरंगे कागजों और बत्तियों से कमरे को रौशन किया जाता है. बच्चों के लिए इन सभी में कुछ नया करने, सीखने की आतुरता देखते ही बनती है. पूरा कमरा एक लघु उद्योग में तब्दील हुआ सा लगता है. कुलमिलाकर #बोम्मल_कोलुवू” में कमरे की भव्यता देखते ही बनती है.

#संस्कृति_और_परंपरा — बोम्मल कोलुवू की परंपरा

सदियों से चली आ रही है. एक समय में तो दक्षिण भारत में दशहरा “बोम्मल कोलुवू” का पर्याय हुआ करता था. लेकिन अब ज़िन्दगी की अत्यधिक आपाधापी और आभासी दुनिया के आने से यह कहीं लुप्त सी होने लगी है. ऐसे में इस प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और आगे कायम रखने के लिए युवा पीढ़ियों को सामने आने को कहा जा रहा है. जिन्हें युवा पीढ़ी स्वीकार भी कर रही है. यह एक साकारात्मक पक्ष है. नौ दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में देवी दुर्गा की पूजा अर्चना होती है जिसे देखने खिलौनों के रूप में विद्यमान देवी देवता, ऋषि मुनि, मनुष्य गण, पशु पक्षी, गाँव खेत खलिहान, पेड़ पौधे, रास्ते, नदियांँ इन सभी का आह्वान किया जाता है. इन सभी की उपस्थिति में देवी दुर्गा,जो पार्वती या अपराजिता का ही रूप है नौ दिनों तक पूजी जाती है. नौ दिनों तक सुबह शाम आरती और नैवेद्य समर्पित करना. देखने आए मेहमानों को उम्र के हिसाब से बैठने की व्यवस्था करना. प्रसाद और तांबूलं वितरण करना . इन सभी कार्यों को करने में घर की महिलाओं की जिम्मेदारी नौ दिनों तक बढ़ जाती है. हाँ बड़ों को बच्चों का भरपूर सहयोग भी मिलता है.

#रचनात्मकताऔरसर्जनशीलता

यह उत्सव बच्चों में मनोरंजन के साथ ही कौशल का भी विकास करता है. बच्चों को अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का पूरा अवसर मिलता है. इसलिए छोटे बच्चों में खासकर इस उत्सव के प्रति काफी उत्साह रहता है. है. खिलौनों को इकट्ठा करने से लेकर उन्हें सुन्दर, सुव्यवस्थित ढंग से कैसे सीढ़ियों में चरणबद्ध तरीकों से सजाया जाए, यह जिम्मेदारी बच्चों को दी जाती है और घर के छोटे छोटे बच्चें उत्साह के साथ चुनौती स्वीकार भी करते हैं.
घर के बड़े बुजुर्ग अपने अनुभव,सुझाव और तरकीबें बच्चों से साझा करते हैं कि किस खिलौनों को कहाँ, किस सीढ़ी पर रखना है और क्यों रखना है बताते हैं. इन सभी प्रक्रियाओं में बच्चों को अपनी रचनात्मकता दिखाने का भरपूर अवसर मिलता है.

#सामाजिक और नैतिकमहत्व

हर बिंदु पर ध्यान

उत्साह के साथ ही बच्चों में सामाजिक जिम्मेदारियाँ भी आती है. ‌पालक के साथ यह बच्चों की भी जिम्मेदारी होती है कि अपने घर में नौ दिनों तक चलने वाले उत्सव को देखने के लिए अपने पड़ोसियों को न्योता दें. इस प्रक्रिया में साकारात्मक पहलू यह होती है कि आस पड़ोस के बच्चें आपस में मनमुटाव और अनबन (अगर है तो) मिटाकर एक दूसरे को शारिरिक या वैचारिक आदान प्रदान कर एक दूसरे की सहायता करते हैं. तो इन सब से कहीं न कहीं समाज में एकजुटता और सौहार्दपूर्ण वातावरण विकसित होता है, सद्भावनाओं का विकास होता है. बच्चें अपने हमउम्र से तुरंत सीखते भी हैं. हर बात बच्चें विद्यालय में नहीं सीखते. पढ़ाई के अलावा व्यवहारिक ज्ञान और सामाजिक लेनदेन भी बहुत आवश्यक है और वह ज्ञान और नैतिक जिम्मेदारी बच्चें अपने परिवार और आसपास के पड़ोसियों से सीखते हैं. नौ दिनों तक चलने वाले इस खिलौने के उत्सव को जितने लोग देखने आए उतनी ही मन में खुशी होती है. आसपड़ोस में लोगों को बुलाने की जिम्मेदारी भी बच्चों को दी जाती है. इससे कहीं ना कहीं बच्चों में आत्मविश्वास के साथ सामाजिक व्यवहार भी आता है. किस उम्र के लोगों को किस संबोधन से कैसे बुलाना है,यह भी बच्चे सीखते हैं. इससे बच्चों में नैतिक मूल्यों का भी विकास होता है.

#आर्थिक_महत्व

जैसे की पहले ही बताया गया है कि बोम्मल कोलुवू उत्सव में खिलौनों की ही प्रमुखता है. यह खिलौने ज्यादातर या तो लकड़ी के होते हैं या मिट्टी के. क्योंकि यह सांस्कृतिक परंपरा सदियों पुरानी है और दशकों पहले लकड़ी और मिट्टी के खिलौने ही प्रचलित और उपलब्ध थे. जैसे जैसे समय बीतता गया इनमें भी नवीनीकरण होता गया. अब दूसरे मेटेरियल्स के खिलौने भी उत्सव में प्रयोग किए जाते हैं. लेकिन जो बात मिट्टी और लकड़ी में है वह बात, वह खुबसूरती शायद ही दूसरे मेटेरियल्स के खिलौनों में देखने को मिलेगा. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह खिलौने खासकर स्थानीय कारीगरों द्वारा तैयार किए जाते हैं. तो कारीगर स्थानीय संस्कृति, वहाँ के गाँव, किसान, खेत खलिहान, और आसपास के वातावरण से भलीभांति परिचित रहते हैं. तो लोगों के मनःस्थिति को बखूबी समझते हैं. तीसरे बात कि इन कारीगरों का खिलौने बनाने का एक अपना अंदाज और डिजाइन है जो पूरे विश्व में प्रसिद्ध है.

सबका अपना स्थान

इस तरह के उत्सवों के आयोजनों से इन कारीगरों को भी भरपूर काम और दाम मिलता है इन कारीगरों के परिवार का भरण पोषण इन खिलौनों से ही चलता है. इनका देश के जीडीपी में छोटा ही सही लेकिन योगदान है. आज तो इन खिलौनों की मांग अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी है. दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश में लकड़ी के पारंपरिक कोंडापल्ली और ऐटीकोप्पका खिलौने #ललक्कपिड्डतलू नाम से प्रचलित है. यह तकरीबन ४०० या उससे भी अधिक साल से पुरानी है. अगर आप भी यहाँ के लकड़ियों के खिलौने देखेंगे तो देखते ही रह जाएंगे.

लेखिका व शिक्षिका अपर्णा विश्वनाथ हिंदी साहित्य, भारतीय संस्कृति और परंपरा की गहरी समझ के साथ लगातार लेखन कार्य से जुड़ी रही है. ये रेल परिवार से संबंध रखतीं है, इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा वर्तमान झारखंड के जमशेदपुर से की है. पिता S&T से सेवानिवृत्त हैं.

चित्र और चलचित्र साभार : Oruganti Varalskshmi 

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